Saturday, 9 May 2015

"मैरिटल रेप"

आजकल "मैरिटल रेप" पर कानून बनाने को लेकर एक मुहिम सी चल पड़ी है. वैज्ञानिक जीवन में पति-पत्नी के मध्य विवाद होते हैं, मार-पीट की नौबत भी आती है, लेकिन "सेक्स में जबरदस्ती" कोई मुद्दा नहीं बनता. अन्य समस्याओं की तरह ही यह भी एक सामान्य समस्या होती है. इसलिए मैरिटल रेप पर किसी नये कानून से कोई बात बनेगी नहीं; उल्टे नयी पेचीदगियां पैदा होंगी.

दरअसल रेप तथा मैरिटल रेप - दोनों अलग अलग बातें हैं. विवाह के पूर्व सेक्स संबंध, कम से कम भारत में बहुत महत्व रखता है. इसे कोई व्यक्ति, विशेषकर स्त्रियाँ अपने सपने के उस "राजकुमार/राजकुमारी" के लिए संरक्षित रखना चाहते हैं, जिनके साथ उन्हें अपनी पूरी जिंदगी गुजारनी है. इसलिए शादी के पूर्व "सेक्स" अत्यधिक महत्वपूर्ण है; और उसका जबर्दस्ती हरण, अर्थात "रेप", अक्षम्य अपराध है.

विवाह के बाद "सेक्स संबंध" - पानी और भोजन, की तरह रोज-मर्रा की जरूरत और क्रियाकलाप होते हैं. इसमें जबर्दस्ती जैसी कोई बात नहीं होती. सुप्रीम कोर्ट ने भी वैवाहिक जीवन में "जबरन सेक्स" को बलात्कार मानने से साफ इंकार कर दिया है.

फिर भी यह तथ्य है कि सामाजिक जीवन में कोई भी घटना अनायास नहीं घटित होती है, और न ही पूर्णतः अर्थहीन होती है. उसकी कुछ न कुछ प्रासंगिकता अवश्य होती है.

पश्चिमी देशों में वैवाहिक जीवन में भी अन्य व्यक्तियों के साथ शारीरिक संबंध होते हैं. बिना विवाह-विच्छेद किये ही लोग दूसरे के साथ रहने लगते हैं. ऐसे में यदि कानूनी पति, जिसके साथ अब कोई रिश्ता नहीं रहा; वह बलात्कार करता है, तो निश्चित ही यह बलात्कार है; मैरिटल रेप नहीं है. भारत में विवाह-विच्छेद आसान नहीं होता. पति की क्रूरता या अन्य कारणों से जब पत्नी, अपने पति के साथ वैवाहिक संबंध जारी रखना नहीं चाहती, तो विवाह-विच्छेद की जगह वह उससे दूर चली जाती है और अलग रहती है. ऐसे में वर्षों बाद यदि वही पति "रेप" करता है- तो, इससे बचाव की ज़रूरत अवश्य है. इसके लिये कोई स्पष्ट कानून नहीं है.

लेकिन, एक बात तय है कि सामान्य वैवाहिक जीवन में सेक्स में जबरदस्ती जैसी कोई बात नहीं होती; इसका इस्तेमाल सिर्फ दुरुपयोग को आमंत्रित करता है. अगर बिना सोचे समझे कोई कानून बना दिया गया, तो लेने के देने पड़ जाएँगे.

जिस तरह से दलबदल विरोधी कानून ने दलबदल तो नहीं ही रोका, और थोक में दलबदल होने लगे; बल्कि दुष्परिणाम यह हुआ कि पहले कम से कम एक एम एल ए या एम पी खुल कर अपने विचार तो विधान मंडल के पटल पर रख पाता था; अब वह अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता खो बैठा और अपनी पार्टी का गुलाम बन गया. सत्य की शुरुआत तो एक व्यक्ति से ही होती है, और हमने उस एक साहसी व्यक्ति को गँवा दिया. हमारी संसद या राज्य विधान मंडल, स्वतंत्र सदस्यों के बजाए राजनीतिक पार्टियों के गुलाम बन गये हैं, और उनके क्रियाकलापों का केन्द्र संसद के बाहर होता है. अगर हम थोड़ा चिंतन करें, तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि हमारी आज की बहुत सारी राजनीति समस्याओं के केंद्र में वही दलबदल विरोधी कानून है.
ठीक इसी प्रकार से दहेज विरोधी कानून भी है. इससे दहेज पर तो कोई अंकुश नहीं लगा, उल्टे दुरुपयोग शुरू हो गये.

वास्तव मे समस्या उचित कानून की उतनी नहीं है, जितनी कि कानून के क्रियान्वयन की है. अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी, हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी पिछले दस वर्षों के कांग्रेस शासन काल के "पॉलिसी पैरेलिसिस" की चर्चा करते चले आ रहे हैं, वही वास्तविक कारण है. परंतु. यही बात मोदी जी के लिए भी सही है. पिछले एक वर्ष के मोदी काल में कुछ सुधार अवश्य हुआ है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है.

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