सबसे ज्यदा आईएस/आईपीएस,
बैंक पी ओ, क्लर्क, रेलवे की नौकरियों में जाने से लेकर
राष्ट्रीय राजनीति तक में बिहारियों का बोलबाला है. अतीत में भी अशोक,चाणक्य,
बुद्ध और महावीर से लेकर शेरशाह तक की कर्मभूमि बिहार रहा है, इसके बावजूद दिल्ली
या मुंबई में पैदा हुआ व्यक्ति यहाँ के लोगों को “बिहारी” कह कर मजाक बनाते हैं,
तो एक विरोधाभास महसूस होता है.
सामाजिक जीवन में कोई घटना, रीति-रिवाज बन जाये - ऐसा अकारण एवं अनायास नहीं होता। इतनी महान हस्तियों के "बिहारी" होने के बावजूद दिल्ली बगैरह में "बिहारी", "हीनता" का प्रतीक क्यों है; दिल्ली के लोग पागल तो नहीं हैं!
उत्तर, सभी जानते हैं। यद्यपि दिल्ली में भी बिहारियों ने अपनी मेहनत और वैज्ञानिक सोच के बल पर एक मुकाम बनाया है, तथा बड़ी संख्या में तमाम बड़े पदों को सुशोभित कर रहे हैं; लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि ठेला चालक, रिक्शा चालक, आटो रिक्शा चालक, कुली, मजदूर से लेकर सिक्युरिटी गार्ड तक, तमाम निम्नस्तरीय कार्य करने वाले लोगों में अधिकतर "बिहारी" ही होते हैं (कोई भी कार्य निम्न स्तरीय नहीं होता, यह तो सिर्फ लोगों की सोच के संदर्भ में कहा गया है) । ज्यादातर, "भोजपुरी" उनकी पहचान है। इसीलिए लोगों की मानसिकता "बिहारी" को हीन समझने की हो गई है।
इस मानसिकता का रहस्य इस बात में भी छुपा हुआ है कि आई ए एस, बैंक पी ओ, क्लर्क, रेलवे - यानी सरकारी सेवाओं में सबसे ज्यादा सफल होने वाले "बिहारी" हैं; लेकिन बिहार सर्वाधिक "गराबों" वाला राज्य भी "बिहार" ही है (सर्वाधिक गरीबी के प्रतिशत के लिए बिहार, उड़ीसा तथा झारखंड में होड़ है) । इस अंतर्विरोध की व्याख्या आप कैसे करेंगे? यह भी वैसा ही अंतर्विरोध है।
इसका उत्तर बिहार के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने में छुपा है। कुछ उच्च तथा भू-स्वामित्व वाली जातियां बड़ी संख्या में अपने बच्चों को सरकारी नौकरियों में भेज रही हैं और अपने बच्चों को पढ़ाने में उनके समर्पण का जवाब नहीं है । दूसरी ओर, निम्न जातियों तथा भूमिहीन लोगों की बड़ी संख्या है, जिनके लिए दो जून की रोटी पर भी आफत है। दरअसल यही वे लोग हैं, जो रोजगार की तलाश में दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र और गुजरात जाते हैं, और यही वो लोग हैं, जिनके कारण "बिहारी" एक हीन भावना का प्रतीक बन गया है।
सामाजिक जीवन में कोई घटना, रीति-रिवाज बन जाये - ऐसा अकारण एवं अनायास नहीं होता। इतनी महान हस्तियों के "बिहारी" होने के बावजूद दिल्ली बगैरह में "बिहारी", "हीनता" का प्रतीक क्यों है; दिल्ली के लोग पागल तो नहीं हैं!
उत्तर, सभी जानते हैं। यद्यपि दिल्ली में भी बिहारियों ने अपनी मेहनत और वैज्ञानिक सोच के बल पर एक मुकाम बनाया है, तथा बड़ी संख्या में तमाम बड़े पदों को सुशोभित कर रहे हैं; लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि ठेला चालक, रिक्शा चालक, आटो रिक्शा चालक, कुली, मजदूर से लेकर सिक्युरिटी गार्ड तक, तमाम निम्नस्तरीय कार्य करने वाले लोगों में अधिकतर "बिहारी" ही होते हैं (कोई भी कार्य निम्न स्तरीय नहीं होता, यह तो सिर्फ लोगों की सोच के संदर्भ में कहा गया है) । ज्यादातर, "भोजपुरी" उनकी पहचान है। इसीलिए लोगों की मानसिकता "बिहारी" को हीन समझने की हो गई है।
इस मानसिकता का रहस्य इस बात में भी छुपा हुआ है कि आई ए एस, बैंक पी ओ, क्लर्क, रेलवे - यानी सरकारी सेवाओं में सबसे ज्यादा सफल होने वाले "बिहारी" हैं; लेकिन बिहार सर्वाधिक "गराबों" वाला राज्य भी "बिहार" ही है (सर्वाधिक गरीबी के प्रतिशत के लिए बिहार, उड़ीसा तथा झारखंड में होड़ है) । इस अंतर्विरोध की व्याख्या आप कैसे करेंगे? यह भी वैसा ही अंतर्विरोध है।
इसका उत्तर बिहार के सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने में छुपा है। कुछ उच्च तथा भू-स्वामित्व वाली जातियां बड़ी संख्या में अपने बच्चों को सरकारी नौकरियों में भेज रही हैं और अपने बच्चों को पढ़ाने में उनके समर्पण का जवाब नहीं है । दूसरी ओर, निम्न जातियों तथा भूमिहीन लोगों की बड़ी संख्या है, जिनके लिए दो जून की रोटी पर भी आफत है। दरअसल यही वे लोग हैं, जो रोजगार की तलाश में दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र और गुजरात जाते हैं, और यही वो लोग हैं, जिनके कारण "बिहारी" एक हीन भावना का प्रतीक बन गया है।
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