ताजा जनगणना [जनगणना
2011 (Census
of India 2011)] के मुताबिक भारत
में प्रति हजार पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का औसत, पहले के 933 के मुकाबले बढ़ कर 940 हो गया है. सिर्फ बिहार, गुजरात और जम्मू-कश्मीर ही ऐसे तीन राज्य
रहे,
जिनमें महिलाओं का औसत
कम हुआ है. ताजा आंकड़े साबित करते हैं कि लड़कियों को गर्भ में ही, या पैदा होते ही मार देने की घटनाएं बढ़ी
हैं. छह साल तक की आबादी में बच्चियों का औसत, पिछली जनगणना के 927 से भी घट कर 914 हो गया है. छह साल तक की आबादी
में लड़कियों के औसत के मामले में हरियाणा और पंजाब 830 और 846 के औसत के साथ सबसे निचले
पायदान पर हैं. हरियाणा के झज्जर में प्रति एक हजार पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की
संख्या केवल 774 और महेंद्रगढ़ में 778 है. यह संख्या देश के किसी भी जिले के मुकाबले
सबसे कम है.
नैसर्गिक रूप से किसी भी अन्य जीव की भांति मनुष्य में भी नर की तुलना में मादा ज्यादा पैदा होती है. चूँकि अन्य जीवों में नर तथा मादा में भेदभाव नहीं किया जाता; अतः संकट, मादा की तुलना में नर का पैदा होता है. मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीव है, जिसमें संकट नर का नहीं, मादा का है; क्योंकि यह संकट हमने पैदा किया है.
कन्या भ्रूण हत्या, समाज में स्त्रियों की दोयम स्थिति का परिणाम है. आधुनिक समय में, जबकि जीवन के हर क्षेत्र में स्त्रियाँ लगातार आगे बढ़ रही हैं; इसके बावजूद स्त्रियाँ एक बोझ मानी जाती हैं, और लोग बेटों की चाहत रखते हैं. दरअसल इसके लिए हमारा धर्म और समाज - दोनों दोषी हैं; क्योंकि दोनों ने ही समाज पर "पुरुष वर्चस्व" को बनाये रखने में योगदान दिया है।
धार्मिक क्रियाकलापों में पुरुषों का महत्व; “वंश”, पुरुष पर आधारित होना; बुढ़ापे में बेटों पर आश्रित रहने का रिवाज; बेटी को पराया मानने का रिवाज; जानलेवा दहेज़ प्रथा; लड़की की इज्जत की सुरक्षा की विशेष जिम्मेदारी आदि ऐसे कारण हैं; जिन्होंने लड़की की तुलना में लड़कों की चाहत को बढ़ावा दिया है. कन्या भ्रूण हत्या इसी का परिणाम है.
पहले तो लड़की पैदा होने के बाद लोग उसे मार देते थे, लेकिन जब से विज्ञान ने भ्रूण के लिंग की पहचान को संभव बना दिया है; तब से तमाम प्रतिबंधों के बावजूद, अवैध तरीके से यह जारी है और कन्या भ्रूण हत्या हो रही है. इसके कारण छः वर्ष से कम आयु के बच्चों में लिंगानुपात बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है.
भ्रूण परिक्षण को कड़ाई से लागू करना जरुरी है, लेकिन यह स्थाई समाधान नहीं है. स्थाई समाधान तो पुरुषों के सकक्ष महिलाओं की बराबरी से जुड़ा है.
हमनें ऐसा समाज बनाया है, जिसमें पुरुष होना गौरव की बात है – पुरुष प्रधान ही नहीं, बल्कि “पुरुष वर्चस्व वाला समाज”. “सेक्स” – एकमात्र मुख्य कारण है, जिसकी वजह से पुरुषों ने स्त्रियों पर आधिपत्य स्थापित करना चाहा. जीवन - यापन में “शारीरिक शक्ति की श्रेष्ठता” के महत्व ने विजय प्राप्त करने में निर्णायक भूमिका निभायी; धर्म ने पुरुषों का साथ दिया. प्राचीन और मध्यकाल तक यह सिलसिला चलता रहा. लेकिन आधुनिक युग और वैज्ञानिक आविष्कारों ने पुरुषों की “शारीरिक शक्ति की श्रेष्ठता” के महत्व को क्रमशः ख़त्म करना शुरू कर दिया.
स्त्रियाँ किसी बात में पुरुषों से कम नहीं होतीं. नए माहौल में जैसे ही उन्होंने शिक्षा प्राप्त करना और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कम करना शुरू कर दिया; स्थितियाँ बदलने लगी. स्त्रियों के विरुद्ध पुरुष, वास्तव में लड़ाई हार चुके हैं; लेकिन बनाये गए पुराने रीति-रिवाज, अभी भी उनका रास्ता रोक रहे हैं.
हमारे जीवन को जो चीजें प्रभावित करती हैं, उनमें राजनीति सबसे महत्वपूर्ण है. ऐतेहासिक दृष्टि से, स्त्रियों पर पुरुषों के प्रभुत्व को “राजनीति” ने ही संभव बनाया था. और, “राजनीति” में ही वो क्षमता है, जो स्त्रियों को पुरुषों के समक्ष “समानता” का दर्जा दिला सकती है; जिसका अभिप्राय है – राजनीति में महिलाओं की भागीदारी.
73 वें तथा 74 वें संविधान संशोधन के द्वारा स्थानीय स्वायत्त निकायों (ग्राम पंचायत एवं नगरपालिका) के सभी स्तरों पर महिलाओं के लिए 50% स्थान आरक्षित कर देने का क्रन्तिकारी असर हुआ है; क्योंकि स्थानीय स्तर पर निर्णय प्रक्रिया में लाखों की संख्या में महिला नेत्री उभर कर सामने आयी हैं; जिनका आम जनता पर प्रभाव है. इसका परिणाम यह होगा कि अगले दशक तक, राजनितिक दल महिलाओं को संसद एवं राज्य विधान मंडलों के लिए टिकट देने के लिए मजबूर हो जायेंगे.
नैसर्गिक रूप से किसी भी अन्य जीव की भांति मनुष्य में भी नर की तुलना में मादा ज्यादा पैदा होती है. चूँकि अन्य जीवों में नर तथा मादा में भेदभाव नहीं किया जाता; अतः संकट, मादा की तुलना में नर का पैदा होता है. मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीव है, जिसमें संकट नर का नहीं, मादा का है; क्योंकि यह संकट हमने पैदा किया है.
कन्या भ्रूण हत्या, समाज में स्त्रियों की दोयम स्थिति का परिणाम है. आधुनिक समय में, जबकि जीवन के हर क्षेत्र में स्त्रियाँ लगातार आगे बढ़ रही हैं; इसके बावजूद स्त्रियाँ एक बोझ मानी जाती हैं, और लोग बेटों की चाहत रखते हैं. दरअसल इसके लिए हमारा धर्म और समाज - दोनों दोषी हैं; क्योंकि दोनों ने ही समाज पर "पुरुष वर्चस्व" को बनाये रखने में योगदान दिया है।
धार्मिक क्रियाकलापों में पुरुषों का महत्व; “वंश”, पुरुष पर आधारित होना; बुढ़ापे में बेटों पर आश्रित रहने का रिवाज; बेटी को पराया मानने का रिवाज; जानलेवा दहेज़ प्रथा; लड़की की इज्जत की सुरक्षा की विशेष जिम्मेदारी आदि ऐसे कारण हैं; जिन्होंने लड़की की तुलना में लड़कों की चाहत को बढ़ावा दिया है. कन्या भ्रूण हत्या इसी का परिणाम है.
पहले तो लड़की पैदा होने के बाद लोग उसे मार देते थे, लेकिन जब से विज्ञान ने भ्रूण के लिंग की पहचान को संभव बना दिया है; तब से तमाम प्रतिबंधों के बावजूद, अवैध तरीके से यह जारी है और कन्या भ्रूण हत्या हो रही है. इसके कारण छः वर्ष से कम आयु के बच्चों में लिंगानुपात बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है.
भ्रूण परिक्षण को कड़ाई से लागू करना जरुरी है, लेकिन यह स्थाई समाधान नहीं है. स्थाई समाधान तो पुरुषों के सकक्ष महिलाओं की बराबरी से जुड़ा है.
हमनें ऐसा समाज बनाया है, जिसमें पुरुष होना गौरव की बात है – पुरुष प्रधान ही नहीं, बल्कि “पुरुष वर्चस्व वाला समाज”. “सेक्स” – एकमात्र मुख्य कारण है, जिसकी वजह से पुरुषों ने स्त्रियों पर आधिपत्य स्थापित करना चाहा. जीवन - यापन में “शारीरिक शक्ति की श्रेष्ठता” के महत्व ने विजय प्राप्त करने में निर्णायक भूमिका निभायी; धर्म ने पुरुषों का साथ दिया. प्राचीन और मध्यकाल तक यह सिलसिला चलता रहा. लेकिन आधुनिक युग और वैज्ञानिक आविष्कारों ने पुरुषों की “शारीरिक शक्ति की श्रेष्ठता” के महत्व को क्रमशः ख़त्म करना शुरू कर दिया.
स्त्रियाँ किसी बात में पुरुषों से कम नहीं होतीं. नए माहौल में जैसे ही उन्होंने शिक्षा प्राप्त करना और पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कम करना शुरू कर दिया; स्थितियाँ बदलने लगी. स्त्रियों के विरुद्ध पुरुष, वास्तव में लड़ाई हार चुके हैं; लेकिन बनाये गए पुराने रीति-रिवाज, अभी भी उनका रास्ता रोक रहे हैं.
हमारे जीवन को जो चीजें प्रभावित करती हैं, उनमें राजनीति सबसे महत्वपूर्ण है. ऐतेहासिक दृष्टि से, स्त्रियों पर पुरुषों के प्रभुत्व को “राजनीति” ने ही संभव बनाया था. और, “राजनीति” में ही वो क्षमता है, जो स्त्रियों को पुरुषों के समक्ष “समानता” का दर्जा दिला सकती है; जिसका अभिप्राय है – राजनीति में महिलाओं की भागीदारी.
73 वें तथा 74 वें संविधान संशोधन के द्वारा स्थानीय स्वायत्त निकायों (ग्राम पंचायत एवं नगरपालिका) के सभी स्तरों पर महिलाओं के लिए 50% स्थान आरक्षित कर देने का क्रन्तिकारी असर हुआ है; क्योंकि स्थानीय स्तर पर निर्णय प्रक्रिया में लाखों की संख्या में महिला नेत्री उभर कर सामने आयी हैं; जिनका आम जनता पर प्रभाव है. इसका परिणाम यह होगा कि अगले दशक तक, राजनितिक दल महिलाओं को संसद एवं राज्य विधान मंडलों के लिए टिकट देने के लिए मजबूर हो जायेंगे.
और, जिस
दिन नीति निर्माता निकायों – संसद
एवं राज्य विधान मंडलों में महिलाएं निर्णायक भूमिका में आ जायेंगी – क्रन्तिकारी परिवर्तन हो जायेगा. फिर कोई
कन्या भ्रूण हत्या नहीं होगी; “रेप”- अपवाद हो जायेगा तथा महिला और पुरुष के बीच वास्तविक समानता स्थापित
हो जायेगी.
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