“यदि विद्रोहियों में एक भी योग्य नेता हुआ
होता,
तो हम सदा के लिए हार
जाते”
– सर जॉन लोरेंस (सन 1857 ई के विद्रोह के बारे में)
“यदि भारत की आजादी के इन 67 वर्षों में एक भी योग्य नेता हुआ होता, तो हम विश्व की एक महाशक्ति होते.”
ऐसा नहीं है कि सन 1857 ई के विद्रोह में कोई नेता नहीं था. एक से बढ़कर एक नेता थे – बाबू वीर कुंवर सिंह, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना साहब से लेकर बेगम हजरत महल, अजीमुल्ला एवं मौलवी अहमदुल्ला तक. इन वीरों ने अपनी गहन अंग्रेज विरोधी भावना तथा शूरवीरता की अद्भुद मिसाल पेश की. मगर अंग्रेजों को भगाने के लिए महज उनकी “अंग्रेज विरोधी भावना” तथा “शूरवीरता” काफी नहीं थे. जरुरत थी – "नेतृत्व क्षमता" की. सारे विद्रोही अलग अलग लड़ते और पराजित होते गए. न सिर्फ सारे विद्रोहियों – सेना और उसका समर्थन करने वाली आम जनता - को एकजुट करके समस्त संसाधनों का संगठित इस्तेमाल करने की जरुरत थी; बल्कि अंग्रेजों को भगाने के बाद किस तरह की शासन व्यवस्था होगी – इसकी भी स्पष्ट योजना अपेक्षित थी. “देशभक्त” और “शूरवीर” सभी थे, मगर “नेता” एक भी न था.
भारत की आजादी के इन 67 वर्षों में जवाहरलाल नेहरु, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी से लेकर वी पी सिंह. पी वी नरसिंहाराव और मनमोहन सिंह जी तक – सभी देशभक्त थे; अपने अपने दृष्टिकोण से सबों ने अथक प्रयास किया. उनकी देशभक्ति तथा समर्पण पर कोई ऊँगली नहीं उठा सकता. परन्तु, सवाल तो यही है कि लोक लुभावन नीतियों से ऊपर उठकर, इस दृष्टि से कि “देश के समग्र प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों का इस्तेमाल किस तरह किया जाये कि एक तरफ राष्ट्र का आधारभूत ढांचा सहित उद्योग, कृषि एवं सेवा क्षेत्र का विकास हो और भारत, विश्व की महाशक्ति बन सके; तो दूसरी तरफ, देश के सबसे गरीब लोगों तक विकास के लाभ पहुँच सके और देश की आम जनता आनंद और सुकून के साथ जीवन यापन कर सके” – यह दृष्टि किसी भी नेता में नहीं थी. अर्थात वास्तव में कोई “नेता” ही नहीं हुआ.
“यदि भारत की आजादी के इन 67 वर्षों में एक भी योग्य नेता हुआ होता, तो हम विश्व की एक महाशक्ति होते.”
ऐसा नहीं है कि सन 1857 ई के विद्रोह में कोई नेता नहीं था. एक से बढ़कर एक नेता थे – बाबू वीर कुंवर सिंह, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना साहब से लेकर बेगम हजरत महल, अजीमुल्ला एवं मौलवी अहमदुल्ला तक. इन वीरों ने अपनी गहन अंग्रेज विरोधी भावना तथा शूरवीरता की अद्भुद मिसाल पेश की. मगर अंग्रेजों को भगाने के लिए महज उनकी “अंग्रेज विरोधी भावना” तथा “शूरवीरता” काफी नहीं थे. जरुरत थी – "नेतृत्व क्षमता" की. सारे विद्रोही अलग अलग लड़ते और पराजित होते गए. न सिर्फ सारे विद्रोहियों – सेना और उसका समर्थन करने वाली आम जनता - को एकजुट करके समस्त संसाधनों का संगठित इस्तेमाल करने की जरुरत थी; बल्कि अंग्रेजों को भगाने के बाद किस तरह की शासन व्यवस्था होगी – इसकी भी स्पष्ट योजना अपेक्षित थी. “देशभक्त” और “शूरवीर” सभी थे, मगर “नेता” एक भी न था.
भारत की आजादी के इन 67 वर्षों में जवाहरलाल नेहरु, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गाँधी और राजीव गाँधी से लेकर वी पी सिंह. पी वी नरसिंहाराव और मनमोहन सिंह जी तक – सभी देशभक्त थे; अपने अपने दृष्टिकोण से सबों ने अथक प्रयास किया. उनकी देशभक्ति तथा समर्पण पर कोई ऊँगली नहीं उठा सकता. परन्तु, सवाल तो यही है कि लोक लुभावन नीतियों से ऊपर उठकर, इस दृष्टि से कि “देश के समग्र प्राकृतिक एवं मानवीय संसाधनों का इस्तेमाल किस तरह किया जाये कि एक तरफ राष्ट्र का आधारभूत ढांचा सहित उद्योग, कृषि एवं सेवा क्षेत्र का विकास हो और भारत, विश्व की महाशक्ति बन सके; तो दूसरी तरफ, देश के सबसे गरीब लोगों तक विकास के लाभ पहुँच सके और देश की आम जनता आनंद और सुकून के साथ जीवन यापन कर सके” – यह दृष्टि किसी भी नेता में नहीं थी. अर्थात वास्तव में कोई “नेता” ही नहीं हुआ.
हमारे वर्तमान प्रधानमत्री श्री नरेन्द्र
मोदी जी में वह अपेक्षित “नेतृत्व
क्षमता”
है और उनके प्रयास भी
उसी दिशा में हैं, परन्तु
मुस्लिम साम्प्रदायिक शक्तियों के साथ साथ, हिन्दू साम्प्रदायिक शक्तियां भी जिस तरह से अपना सर उठा रही हैं
–
वह मोदी जी की राह की
सबसे बड़ी चुनौती है. सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि धर्म, संप्रदाय, क्षेत्रीयता, जाति
और लिंग से ऊपर उठकर, राष्ट्र
की एकता और अखंडता को मजबूत बनाने में हम कितना कामयाब हो पाते हैं?
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